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धर्म एवं दर्शन >> सत्यं शिवं सुंदरम्

सत्यं शिवं सुंदरम्

स्वामी अवधेशानन्द गिरि

प्रकाशक : मनोज पब्लिकेशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :191
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4387
आईएसबीएन :81-310-0109-1

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परम सत्य के लौकिक-अलौकिक स्वरूपों की अनुपम झाँकी

Satyam Shivam Sundram

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

सत्यं शिवमं सुंदरम्

नैतिकता, मानवीय मूल्य एवं धर्म-अध्यात्म के ज्ञान का अद्भुत समन्वय

जो सदैव रहे वह सत्य है। सत्य नाम है परमात्मा का। इन्द्रियातीत है, इसलिए इसकी अनुभूति अलौकिक व दिव्य है। लेकिन साधारण व्यक्ति सत्य का साक्षात्कार नहीं कर सकता। श्रीकृष्ण ने इसीलिए कहा, कोई विरला ही मुझे तत्वत: जानता है। तत्वत: का अर्थ है, सत्यरूप में जानना।
सौंदर्य दूसरा कोना है मानो सत्य का। सत्य अपरिवर्तनशील है, जबकि सौन्दर्य प्रतिक्षण बदल रहा है। परिवर्तन न तो सौन्दर्य ही रहता। सौंदर्य में ही सत्य की झलक है, जो जीव को अपनी ओर आकर्षित करती है। यह संसार का आकर्षण परिवर्तनशील में झलकने वाले शाश्वत तत्व का ही तो है।
अक्सर सत्य पर आरूढ़ को सौंदर्य निरर्थक लगता है, जबकि सौंदर्य में डूबा सत्य की ओर आंख उठाकर देखना नहीं चाहता, सत्य उसे नीरस और असार लगता है।

शिव कड़ी है सत्यम् और सुन्दरम् को जोड़ने की तथा इसमें परमात्मा के सत्य और रस इन दोनों स्वरूपों के दर्शन होते हैं। इसमें जगत का हित निहित है। इसी से करुणा, प्रेम, अहिंसा, त्याग, उपकार आदि सद्गुणों की अभिव्यक्ति होती है। जो स्वयं शिवरूप नहीं हुआ वह भला शंकर कैसे बनेगा। शिव स्वरूप ही शिवकारक होता है।
म.मं. स्वामी अवधेशानंद जी महाराज के प्रवचन पर आधारित इस पुस्तक के एक-एक शब्द में आपको स्वांत: सुखाय और जग हिताय इन दोनों का अद्बुत समन्वय मिलेगा, जो बनाएगा आपके व्यक्तित्व को संतुलित, जगोपकारक तथा सत्य का साक्षात्कार करने के योग्य। आपके जीवन में परमात्मा के इन तीनों दिव्य तत्त्वों का प्रकाश हो, यही कामना है।

प्रकाशक

नव ललित वयस्कौ नव्य लावण्यपुंजौ    
नवरस चलचित्रौ नूतनप्रेमवृत्तौ
नव निधुवन लीला कौतुकेनातिलोलौ
स्मर निभृत निकुंजे राधिका कृष्णचंद्रौ।

कांति: सितामृशति निन्दित शारदेंदु-
र्यत्रैकतो विलसितामसितांगशोभम्।
वृंदावनेऽपि कृत यामुन गांगसंगं
राधामुकुंद युगलं तदहं नमामि।।

दो शब्द


विकास क्रम में आज मनुष्य उस परम लक्ष्य की ओर गतिशील है, जिसका प्रतिपादन अध्यात्मवेत्ता वैदिक ऋषि-मनीषियों से लेकर आज के विचारकों तक ने किया है। चेतनात्मक उत्कर्ष की यह महान क्रान्ति अध्यात्म के क्षेत्र के माध्यम से ही संपन्न हो सकेगी, जिसका शुभारंभ हो चुका है। जो धर्म, आचार, साधना, संस्कृति, शिक्षा कभी कुछ गिने-चुने लोगों तक सीमाबद्ध थी, उसका द्वार अब सबके लिए खोल दिया गया है। प्रत्यक्ष एवं परोक्ष-जगत में इसकी व्यापकता को विवेकीजन सहज ही अनुभव करते हैं। अतींद्रिय क्षमता-संपन्न दिव्यदर्शियों से लेकर मूर्धन्य  चिंतक, मनीषी, वैज्ञानिक तक समस्त मानव जाति का भविष्य उज्ज्वल होने की बात पर जोर देते हुए अब चिंतित चेतना में आमूल-चूल परिवर्तन की बात करते हैं।

अमेरिका के डॉक्टर ऐशले मोंटेग्यू गहन अध्ययन के पश्चात इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि मनुष्य का भविष्य उज्जवल है और निरंतर प्रगतिशील रहते हुए वह देवत्व की ओर अग्रसर है। उसके अनुसार वर्तमान की स्थिति, परिस्थिति एवं विचारधाराओं के अनुरूप ही भविष्य का निर्माण होता है। इस अवस्था को उन्होंने ‘कल्चर’ के नाम से संबोधित किया गया है। उनके अनुसार, पिछले सौ वर्षों की स्थिति का अवलोकल करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि संसार की गति-प्रगति एवं मानवी चिंतन-चेतना में विशेष परिवर्तन हुआ है।

उनका कथन है कि संसार में दो प्रकार की विचारधाराओं वाले लोग पाए जाते हैं। एक आशावादी और दूसरे निराशावादी। आशावादी दृष्टिकोण वाले व्यक्ति अपने उज्जवल भविष्य को ध्यान में रखते हुए हुए वर्तमान को सब प्रकार से सुखी-समुन्नत बनाने के प्रयास में निरंतर जुटे रहते हैं और अपनी आकांक्षाओं को पूरा करते रहते हैं, जबकि निराशावादी व्यक्तियों के जीवन में अनिश्चितता का वातावरण ही बना रहता है, इसलिए वे भविष्य के संबंध में किसी भी प्रकार का शुभ चिंतन नहीं कर पाते। मन:स्थिति के अनुरूप ही परिस्थितियों का निर्माण तथा भविष्य की रूपरेखा तैयार होती है।
इस संबंध में डॉक्टर ऐशले ने इन बातों का कथन प्रमुख रूप से किया है-पहली यह कि इस संसार में भली-बुरी दोनों ही प्रकार की परिस्थितियां क्रियाशील पाई जाती हैं, जिनके गतिक्रम को रोका नहीं जा सकता, किन्तु भविष्य को प्रकाशमय देखने वाले उनके साथ अपनी मन:स्थिति का तालमेल बिठाने की क्षमता रखते हैं और अनिष्टकारक संभावनाओं को टाल सकने की भी।
दूसरी अति महत्वपूर्ण बात इस संबंध में यह है कि अपनी सुखद संभावनाओं पर विचार करने और तदनुरूप आचरण करने वाले सदा अपनी ईमानदारी और कर्तव्य-निष्ठा का परिचय देते हुए अपनी जीवनचर्या का निर्धारण करते हैं। इसके साथ ही संभावनाओं को साकार करने में उसी स्तर का प्रयत्न पुरुषार्थ भी नियोजित करते हैं।

आज अधिसंख्य जनसमुदाय इसी स्तर की मानसिकता बनाता जा रहा है जो इस बात का स्पष्ट संकेत है कि मानव-जाति का भविष्य सब प्रकार से सुंदर और सुखद है। स्मरण रखा जाने योग्य तथ्य यह है कि मनुष्य का मूलभूत उद्देश्य देवत्व को प्राप्त करना है, जिनके लिए वह अनादिकाल से ही प्रयत्नशील है। यद्यपि इस उच्चस्तरीय उद्देश्य की उपलब्धि स्वल्पकाल में होती दिखाई नहीं देती, फिर जो मनुष्य अपने प्रबल पुरुषार्थ का परिचय देता हुआ अनवरत रूप से चेतनात्मक विकास की ओर उन्मुख है।

भविष्य में सुखद संभावनाओं के न रहने पर तो जीवन में नीरसता और निष्क्रियता ही छा जाती है, अभिरुचि और उत्साह ठंडा पड़ जाता है। किन्तु आशावादिता असंभव को भी संभव बनाती और विभीषिकाओं के घटाटोप को भी विदीर्ण करने की क्षमता रखती है।
मानव की मानसिक चेतना अब विकास के ऐसे मोड़ पर आ गई है, जहां से उसे छलांग लगाकर उच्चस्तरीय आयाम में प्रवेश करना है। विविध प्रकार के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक मतभेदों को सुलझाने का समय अब आ ही गया है। यह कार्य पारस्परिक विचार-विनिमय और साधनात्मक उपचारों से सहज ही पूरा किया जा सकता है। आज लोगों की सांस्कृतिक चेतना जागी है और सभ्यता का विकास हुआ है।
भारतीय संस्कृति में मनुष्य के विकासक्रम में शिक्षा से भी अधिक महत्वपूर्ण विद्या को माना गया है। यही एक ऐसा उपाय-उपचार है, जिसके सहारे मनुष्य अपने कुसंस्कारों, पशु-प्रवृत्तियों का परित्याग करके देवतुल्य प्रवृत्तियों को ग्रहण करने में सफल होता है।

आज व्यक्ति को सामाजिक त्रासदी साल रही है। उसमें निराशा घर करती जा रही है। देह का सुख, मन को शांति और आत्मा को आनंद की प्राप्ति नहीं हो रही। इसका केवल एक ही कारण है और वह है ज्ञान का अभाव ! अर्थात अध्यात्म का अभाव-अध्यात्म, आत्म-निरीक्षण जिसका आदि है और आनंद जिसका है अंत !

आत्म-निरीक्षण यानी आत्मस्वरूप में लौटना। अपने शुद्ध स्वरूप को जानना। प्रतिबद्धता व समबद्धता से साक्षात्कार करना। अध्यात्म आचरण का शुद्धिकरण तथा चित्त की अभिलाषाओं का मंजन एवं अपेक्षाओं का अंत करता है। यह आत्मा के आवरण को हटाता, आंतरिक ज्योति को जगाता, परमेश्वर का दर्शन कराता तथा परम का सान्निध्य प्राप्त कराता है। तब व्यक्ति स्वार्थ की संकुचित परिधि से मुक्त होकर स्वयं सार्वजनिक होता जाता है। सबका हो जाता है, सीमित से असीमित हो जाता है। परमानंद की स्थिति में अंश अस्तित्व खो बैठता है। पूर्णत्व को प्राप्त होता है, परमात्ममय हो जाता है तथा स्वयं को सेवा का पर्याय बन जाता है। यह सब अध्यात्म से ही संभव है।

श्रीमत्परमहंस परिव्राजकाचार्य श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ जूनापीठाधीश्वर आचार्य महामण्डलेश्वर अनन्तश्री विभूषित स्वामी अवधेशानन्द गिरि जी महाराज आज संपूर्ण विश्व में अध्यात्म के ज्ञान को प्रज्वलित किए हुए हैं। उनके श्रीमुख से निकला एक-एक शब्द कानों में अमृतरस घोल देता है। भक्ति को उन्होंने सवश्रेष्ठ माना है। वह कहते हैं, भक्ति के बिना जीवन नीरस, सूना और सारहीन है। भक्ति जीवन में सरसता प्रदान करती है। साधना के संबंध में वह कहते हैं कि एकांत, शील, मित-आहार और स्वयं के प्रति सघन जागरूकता की साधना का आधार है।

इस पुस्तक में हमने स्वामी जी के प्रवचन के उन महत्वपूर्ण अंशों को संकलित किया है, जो साधक के दिलोदिमाग को आंदोलित करते हैं। साधक की प्रगति और विकास के लिए ऐसे ही प्रबोधन की आवश्यकता हुआ करती है।
आपका जीवन आध्यात्मिक गरिमा की उत्कृष्टता को प्राप्त हो, हमारी यही प्रभुचरणों में प्रार्थना है। सर्वे भवन्तु सुखिन:-मा कश्चित् दुख भाग्भवेत्।

-गंगा प्रसाद शर्मा


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